वर्ग- 7 प्रथमः पाठ: वंदना
बच्चों, किसी कार्य का आरम्भ स्तुति, प्रार्थना या वंदना से किया जाता है | इसमें यह भावना होती है कि हमारा कार्य अच्छी तरह चलेगा और बिना विघ्न-बाधा के पूरा हो जाएगा | इसीलिए पाठशालाओं में भी शिक्षण कार्य का आरम्भ प्रार्थना से होता है | प्रार्थना आस्तिकता का संकेत देती कि हम किसी दिव्य-शक्ति में विश्वास करते हैं | संस्कृत के सभी ग्रन्थ मंगलाचरण के रूप में प्रार्थना से ही आरम्भ होते हैं |
तो आइये आज इसी कड़ी में मैं आपको वर्ग-सातवीं के प्रथम पाठ की ‘वंदना’ शीर्षक के श्लोकों को हिंदी अनुवाद सहित सुनाता हूँ|
प्रस्तुत पाठ में संसार के सृष्टिकर्ता परमात्मा की वंदना विभिन्न पौराणिक श्लोकों में की गई है | ज्ञान का आरम्भ परम प्रभु की स्तुति से ही हो यह इस पाठ का लक्ष्य है | परमात्मा जगत के सभी कार्यों के संचालक तथा बिना माँगे सब-कुछ देने वाले हैं | इसलिए सबका कर्तव्य है कि उनकी वन्दना गान सहित करें | अब श्लोकों को देखते हैं :-
1 ) नमस्ते विश्वरूपाय प्राणिनां पाल्काय ते | जन्म-स्थिति-विनाशाय विश्व वन्धाय बन्धवे || अर्थात, हे विश्वरूप अर्थात जिनका समस्त रूप ही संसार है, सभी प्राणियों के पालन करने वाले, आपको मेरा प्रणाम है | हे प्राणियों के रचनाकार, पालनहार तथा संहारक देव आप संसार में सभी वन्धु-वान्धवों द्वारा वन्दनीय हैं |
2) प्रसादे यस्य सम्पतिः विपत्ति कोपने तथा | नमस्तस्मै विशाले शिवाय परमात्मने || अर्थात, जिनके कृपा होने पर धन-धान्य तथा क्रोध होने पर उसी प्रकार से विपत्ति आती है उस शिव रुपी विशाल परमात्मा को मेरा नमस्कार है |
3) ज्ञानं धनं सुखं सत्यं तपो दान्मयाचितम | प्रसादे यस्य लभते मानव स्तं नमाम्यहम || अर्थात, जो मनुष्यों को बिना मांगे ज्ञान, धन, सुख, सत्य एवं तपस्या का दान दे देते हैं, ऐसे ईश्वर को मेरा प्रणाम है |
4) नमामि देवं जगदीशरूपं स्मरामि रम्यं च जगत्स्वरूपं | वदामि तद-वाचक-शब्दवृन्दं महेश्वरम देवगनैरगम्यम ||
अर्थात, मैं ऐसे जगत रूप में निवास करने वाले सुंदर जगदीश्वर को स्मरण करते हुए नमस्कार करता हूँ जो देव्समूहों के द्वारा भी प्राप्त नहीं करने योग्य देवबोधक शब्द समूहों को बोलकर प्रणाम करता हूँ | अर्थात जो शब्द देवताओं को भी प्राप्त नहीं उस शब्दों द्वारा मैं आपको प्रणाम करता हूँ |
तो इसप्रकार से इस अध्याय के सभी चारों श्लोक और उनके अर्थ समाप्त हुए | पाठ के सम्पूर्ण सार की और ध्यान दिया जाए तो मैं ये कहना चाहूँगा कि प्रार्थना अपने आराध्यदेव या सबके आराध्य परम प्रभु की की जाती है | सर्वधर्मसमभाव की दृष्टि से परमेश्वर या परम प्रभु की वंदना सर्वत्र वांछनीय है क्योंकि उनमें किसी प्रकार का पक्षपात या वैषम्य नहीं है | वे ही जगत के सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहारक भी हैं | जगत की सारी व्यवस्था का संचालन उन्हीं से होता है | उनकी प्रसन्नता में समस्त प्राणियों का कल्याण निहित है और उनका क्रोध संकट में लाता है | कोई अपने कर्तव्य से च्युत होता है तो वह परमात्मा का कोपभाजन बनता है | ईश्वर की वंदना उनकर प्रति कृतज्ञता का निविदां है | भारतवर्ष में वेद, उपनिषद, पुराण, तथा अन्य सभी ग्रन्थ ईश् वंदना से भरे हैं | पुराणों में विविध देवों के रूप में भी परमेश्वर की स्तुति की गई है | ऋग्वेद में कहा गया है – एकं साद विप्रा बहुधा वदन्ति | अर्थात एक ही तत्व की स्तुति अनेक रूपों में होती है | हम जिस रूप में वन्दना क्र रहे हैं वह परमात्मा की ही वंदना है |
धन्यवाद |